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Monday, January 21, 2013

भारत का मानवीयकरण अभियान जनवरी 26,से फरवरी 08 ,2013

देशवासियों,
जनवरी 26,1950 को आज से 62 साल पहले स्वतन्त्र भारत का अपना संविधान लागू हुआ जिसने हम सभी भारतवासियों को बिना किसी जातिय,धर्म, रंग आदि भेदभाव के समान संवैधानिक अधिकार दिए। दुर्भाग्य से आज भी भारत के नित्य जीवन में जातीय पहचान एक प्रमुख समस्या बनी हुई है और पूरा समाज जातियों में विभाजित है और बड़ी जातियों द्वारा निचली जातियों का शोषण आज भी ज्वलंत समस्या है। इसका समाधान बहुत पहले की हो चुका होता यदि डा अम्बेडकर के बताये रास्ते पर चल कर सभी सताई जाने वाली जातियाँ एकजुट होकर शोषणकारी जातियों के विरुद्ध लामबद्ध हो जाती और भारतीय समाज के इस युगांतकारी श्रेणीबद्ध असमानता का खात्मा कर देती। संविधान रचियता बाबा साहेब की चेतावनी आज भी सही है, उन्होंने कहा था कि सामाजिक समानता के बिना राजनैतिक समानता का कोइ अर्थ नहीं है, सामाजिक असमानता अतंत: लोकतंत्र को ही लील
जाएगा। आज हमें अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि समाज में यथास्थितिवादियों ने एक महान संविधान को ही धूलधूसरित करने के अपने मंसूबे साफ़ कर दिए है। आज भी हमारे गाँव वही है जहां जातीय पंचायते, खापें प्रमुखता और बर्बरता से कार्यरत है, इनका प्रभाव आज 21वी सदी में भी इतना व्यापक है कि दो व्यस्क इंसान अपनी मर्जी से विवाह तक नहीं कर सकते। संस्कृति की रक्षा के नाम पर ये खाप एंव जातीय पचायतें दलित समाज और महिलाओं के प्रति अपनी घृणा, त्रिस्कार और हिंसा की व्यवस्था को निर्बाध्य रूप से जारी रखे हुए है। इनके आतंकराज को देख कर यह यकीन ही नहीं होता कि भारत कोई लोकतांत्रिक देश है या उसका कोइ संविधान भी है? आधुनिक भारत की लोकतांत्रिक अभिव्यक्तियों का गला हर रोज भारत के हर गाँव में इन पुरातन पंचायतों द्वारा घोटा जा रहा है। भारत के गाँवों को लोकतांत्रिक बनाए बिना भारत को आधुनिक, प्रगतिशील और शक्तिशाली नहीं बनाया जा सकता। भारत में सच्चे लोकतंत्र का रास्ता गाँव से होकर ही जायेगा और उसकी लड़ाई गाँव से ही लड़ी जायेगी जिसे सामुदायिक प्रतिभागिता के बिना सफल नहीं बनाया जा सकता। इन पंचायतों के खिलाफ असहमति की आवाज़ें गाँव में ही उठानी होंगी।

देश में जाति उत्पीडन के खिलाफ दर्जनों क़ानून होने के बावजूद आज भी देश में छुआछूत अनेकों रूपों में विदमान है आज भी दलित छात्र-छात्राओं को कक्षा में पिछ्ली कतारों में बैठना पड़ता है, यहाँ तक कि मिड दे मील के वितरण में भी दलित बालकों को अपमान का सामना करना पड़ता है। आज भी भारतीय समाज में मानव मल्ल को हाथो से साफ़ किया जाता है, पूरी दुनिया में भारत ही ऐसा महान देश है जहां ऐसी मानवविरोधी प्रथाएं आज भी प्रचलित है। मानव का मल्ल मानव ढोये यह तो रंग भेद से बदतर व्यवस्था है, ऐसा भयावह अमानवीय अत्याचार तो अंग्रेजों ने अफ्रीका में स्थानीय काले लोगों को गुलाम बनाने की बाद भी नहीं किया था। आज भी भारत में सरकारी आंकड़ों के अनुसार सात लाख सत्तर हजार लोग मैला ढोने के काम में लगे हैं जो निंदनीय है और अस्वीकार्य भी। हमारी मान्यतानुसार यह आँकड़ा भी गलत है, भारत में इससे बड़ी संख्या में लोग इस अमानवीय यंत्रणाओं को भुगत रहे है। भारत सरकार जो कई अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संधियों दस्तावेजो पर हस्ताक्षर कर चुकी है फिर भी उसकी नाक तले यह मानवाधिकार हनन हो रहा है इसकी हम तीव्र शब्दों में भर्त्सना करते हैं।

छुआछूत सीधे तौर पर वर्ण व्यवस्था जैसी मानाविरोधी विचार प्रणाली का नतीजा है जो किसी इंसान के मौलिक अधिकारों का हरण धर्म और ईश्वरीय शक्ति के नाम पर कर लेता है। इस्लाम दार्शनिक स्तर पर यह भेदभाव भले ही न करे परन्तु मुसलमान समाज भी विभिन्न जातियों के जंगल में फंसा है, पिछड़ी जाति का मुसलमान अपने शव तक को अगड़ी जाति के कब्रिस्तान में दफ़न नहीं कर सकता। दलितों के प्रति उच्च वर्णीय हिंसा का औचित्य समाज में प्रचलित मान्यताओं धार्मिक आस्थाओं, अंधविश्वासों और संस्कारों के माध्यम से ही स्थापित हुआ है, इन्ही धारणाओं के चलते जादू टोने का इल्ज़ाम लगाकर हाल ही में भारत के गावों में दलित महिलायों को सरेआम सामाजिक हिंसा का शिकार होना पडा है। अब समय आ गया है की इन तथाकथित सामाजिक -धार्मिक-सांस्कृतिक मानसिक मूढ़ताओं का मुकाबला सड़क पर उतर कर दिया जाये। ध्यान रहे संविधान की धारा 16 में छुआछूत के विरुद्ध भारत के हर नागरिक को समानता के अधिकार की बात कही गयी है और धारा 17 में छुआछूत को स्पष्ट रूप से मृत घोषित किया गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ जिसका भारत भी हिस्सा है उसके चार्टर में भी सभी इंसानों को बराबरी का दर्जा दिया गया है भले ही वह किसी भी देश, जाति, रंग,नस्ल,धर्म के हों। इन सभी राष्ट्रीय अतंरराष्ट्रीय कानूनी अधिकारों की मौजूदगी में भी भारत में व्याप्त छुआछूत एक राष्ट्रीय शर्म का विषय है, अब सब्र बहुत हो चुका अभी इसके खिलाफ मैदानी संघर्ष करने का वक्त आ चुका है। अगर आप यह समझते है कि यह प्रश्न सिर्फ और सिर्फ दलित समाज का प्रश्न है तब आप ठीक नहीं है। यह पूरे समाज के लिए एक मानवीय प्रश्न है और समाज के सभी तबकों की हिस्सेदारी के बिना हम भारत के समाज को छुआछूत के दंश से मुक्त नहीं कर सकते। उत्तर प्रदेश सूफियों ,क्रांतिकारी लेखकों, प्रबुद्ध दार्शनिकों और नेताओं की जन्म भूमि रही है, इसी धरती ने दलितों की राजनैतिक सत्ता का रसास्वादन पहली बार किया है। हम में से जो लोग यह सोचते है कि समाज में छुआछूत एक मानवताविरोधी कृत है उन्होंने यह फैसला किया है कि अब इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ खुली जंग छेड़नी होगी। हम में से कुछ लोगों ने इस आनोद्लन के वैचारिक पक्ष में जागरूकता बढाने का काम किया है जिससे समाज में फ़ैली इस व्यापक बीमारी से मुकाबला किया आ सके।

हमने इस मुहीम को भारत का मानवीयकरण अभियान नाम दिया है, यह अभियान जातिय घृणा, सांप्रदायिकता और छुआछूत के विरुद्ध है। भारत के कथित सभ्य समाज को आज यह साफ़-साफ़ बताना ही होगा की क्या इस आधुनिक युग में वह आदिकालीन अमानवीय जातिप्रथा, जातिय उत्पीडन और छुआछूत,धर्म आधारित साम्प्रदायिक संकीर्णतायें, लिंग भेद, क्षेत्रीयता, आर्थिक विषमताओं आदि पिछड़ेपन के पक्ष में खड़ा है अथवा विरोध में?

उपरोक्त पृष्ठभूमि में व्यापक समाज के हस्तक्षेप हेतु हमने यह अभियान मगहर जैसे ऐतिहासिक स्थान से आरंभ करने का निर्णय लिया है यहाँ वही स्थान है जहाँ महाकवी कबीर ने तत्कालीन ब्राहमणों की इस अवधारणा के विरुद्ध स्वेच्छा से अपनी अंतिम साँसे ली थी कि मगहर में मरने वाले नरक में जाते है। कबीर अपने जीवनभर सामाजिक कुरीतिओं, अंधविश्वासों , जातपात, छुआछूत, धार्मिक विद्वेषों की खिलाफ लड़ते हुए एक मानवीय समाज बनाने में जुटे रहे। कबीर के इस अधूरे काम को पूरा करने के लिए मगहर से बेहतरीन स्थान हो ही नहीं सकता, आओ महाकवी कबीर की लड़ाई के लिए एक बार फिर सामुहिक शुरुआत की जाए, यह जन जागरण अभियान यात्रा उत्तर प्रदेश कई ऐतिहासिक शहरों से होकर गुजरेगी जिनमें कुशीनगर, चौरी चौरा, देवरिया, मऊ,आजमगढ़, ग़ाज़ीपुर,सारनाथ, वाराणसी, इलाहाबाद, चित्रकूट, फतेहपुर , प्रतापगढ़, फ़ैज़ाबाद,अयोद्ध्या होते हुए लखनऊ में समापन होगा।

हमारे उद्देश्य:
ऐसा नहीं कि भारत में यह कार्य हम पहली बार कर रहे हों, दुर्भाग्य से हमने जनता और समाज की तरफ से साम्प्रदायिकता , जातिय उत्पीडन, छुआछूत केखिलाफ कोइ सीधी सामाजिक कार्यवाही नहीं देखी, इसे मिटाने के लिए प्राय: क़ानून बना देने तक ही लड़ाईयां लड़ी गयी हैं क़ानून बन चुके है लेकिन जनता और समाज के स्तर पर ये रोग जों का तों बना हुआ है, सदियों से इस रोग के विषाणु पीढी दर पीढी आरोपित किये जा रहे हैं अगर जातपात सामाजिक प्रश्न है तब इसे क़ानून के साथ साथ समाज के स्तर पर भी मिटाना जरुरी है, समाज की व्यापक साझीदारी सुनिश्चित करना ही इस अभियान का घोषित लक्ष्य है। भारत का मानवीयकरण बिना जनता की व्यापक भागीदारी के संभव नहीं। भारत को आधुनिक बनाने के लिए उसे अपनी चिरकालीन मानव विरोधी अवधारणाओं की बेड़ियों को तोड़ना ही होगा। यह कार्य उत्तर प्रदेश की धरती से आरंभ किया जा रहा है यह वही स्थान है जहां से कई क्रांतिकारी संघर्षों और विचारों की शुरुआत हुई है। यह 14 दिनों की उत्तर प्रदेश की यात्रा देश के दूसरे प्रदेशों में सामाजिक सुधार और भारत के मानावीयकरण अभियान को एक व्यापक आधार प्रदान करेगी ऐसा हमारा मानना है।

भारत मानवीयकरण अभियान
यह यात्रा, मगहर से 26 जनवरी 2013 को आरंभ होगी जिसका समापन 8 फरवरी को लखनऊ में होगा . यह यात्रा सामाजिक कार्यकर्ता श्री विद्या भूषण रावत के नेतृत्व में इन सारे ऐतिहासिक स्थानों से गुजरेगी और स्कूलों, कालेजो, पंचायत भवनों, नुक्कड़ो के जरिये अपनी बात जनता में रखेगी . लगभग 20 सामाजिक कार्यकर्ता पूरी यात्रा में साथ साथ रहेंगे। यात्रा के दौरान नुक्कड़ नाटकों, लघु फिल्मों, वृत चित्रों, कठपुतली शो, विज्ञान द्वारा अंधविश्वासों का भांडाफोड़ करने वाले कार्यकर्मों का आयोजन किया जाएगा।

लखनऊ में 8 फरवरी को यात्रा का समापन होगा जिसमे देश भर के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताओ और विचारको को आमंत्रित किया जा रहा है। गंगा प्रसाद मेमोरियल सभागार, अमीनाबाद में आपकी उपस्थिति सुबह 10 बजे से प्रथ्नीय है।

यह यात्रा सामाजिक कार्यकर्ताओ, बुद्धिजीवियों छात्र-छात्राओ, पत्रकारों, अध्यापको सभी को शामिल होने का निमंत्रण देती है। आइये समाज बदलने के मुहीम में शामिल हों, देश स्वयं बदल जाएगा

रास्ट्रीय मानववादी आन्दोलन
आयोजन समिति के सदस्य

संगीता कुशवाहा, मल्वाबर, राजकपूर रावत, मोहम्मदाबाद गाजीपुर, इश्तियाक अहमद महाराजगंज, विनीत मौर्या, अयोध्या, मोहम्मद नसीम अंसारी,प्रतापगढ़, वास्मी नकवी, इलाहबाद, रामजी सिंह, चित्रकूट, धीरज कुमार, फतेहपुर

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