बौद्ध धम्म द्वारा ब्राम्हणवाद को चुनौती
भारतीय सामाज के ढाई हजार वर्ष बौद्ध दर्शन द्वारा ब्राह्मणवाद को दी गई कड़ी टक्कर का इतिहास हैं। बुद्ध के निर्वाण के साथ ही बौद्ध संस्थाओं ने जातिवाद और ब्राह्मणों द्वारा अपनी श्रेष्ठता कायम रखने के लिए रचे गए सामाजिक-आर्थिक कुचक्रों की जड़ें खोदनी शुरू कर दीं। बुद्ध की शिक्षाओं ने ब्राह्मण ग्रंथों की प्रामाणिकता पर तीखे सवाल खड़े किए। अपने जीवनकाल में ही बुद्ध ने उन धर्मग्रंथों और पंडे-पुरोहितों की मुखालफत की थी जो पुनर्जन्म, आत्मा, मोक्ष, स्वर्ग-नरक जैसी अवधारणाओं से शोषण का कुचक्र रचते थे। बुद्ध ने ‘‘अप्प दीपो भव’’ का संदेश देकर आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार किया (अनात्मा)। बुद्ध का यह दर्शन भारतीय समाज में घोषित-अघोषित तौर पर 21वीं सदी तक मौजूद है और ब्राह्मणवाद की बुनियादी मान्यताओं, स्थापनाओं को तर्क की कसौटी पर लगातार खारिज कर रहा है। पुस्तक ‘‘ बुद्धिज्म इन इंडिया: चैलेंजिंग ब्राह्मनिज्म एंड कास्ट’’ में लेखक गेल आॅमवेड ने इस द्वंद्व को बौद्ध-ब्राह्मण द्वंद्व के रूप में अकाट्य तर्कों सहित रेखांकित किया है। लेखक का तर्क है कि ब्राह्मणों ने प्रत्येक उस आंदोलन की ऊर्जा को अवशोषित करके अपने प्रभाव में ले लिया जो उसके अस्तित्व पर सवाल खड़े करता था। बौद्ध धर्म के भारत से विलोप, भक्तिकाल की ब्राह्मणों के शड्यंत्रों की पड़ताल लेखक ने इस पुस्तक के अलग-अलग अध्यायों में की है।
बौद्ध आंदोलन ने ब्राह्मणवाद को किस तरह की चुनौतियां दीं-इसके जवाब में लेखक कहता है कि बुद्ध एक कुशल संगठक थे। उनका भिक्षुसंघ पूर्व के गणसंघ के माॅडल पर आधारित था। हालांकि गणतंत्रीय और लोकतांत्रिक मूल्यों वाले गणसंघ का विनाश करने में ब्राह्मण-समर्थित राजतंत्र सफल रहा था। लेकिन राजतंत्र भिक्षुसंघ को एकबारगी नष्ट नहीं कर सका। इसकी मुख्य वजह थी कि संघ के दरवाजे हर जाति और महिलाओं (भिक्षुणियों) के लिए भी खुले थे। लोकतांत्रिक और समाजवादी सिद्धांतों में आस्था रखने वाले संघ ने भिक्षु-भिक्षुणियों को रोटी-कपड़े, मकान, चिकित्सा आदि बुनियादी सुविधाएं मुहैया कीं। उल्लेखनीय है कि बुद्ध के समय तक ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व साहित्य, भाशा (संस्कृत), धर्म (कर्मकांड) और जातीय श्रेष्ठता के माध्यम से कायम कर लिया था। बुद्ध ने वैराग्य और ब्राह्मणवाद के बीच का मार्ग तलाशा। उन्होंने जन्म-मृत्यु, कर्म-मोक्ष, स्वर्ग-नरक, आत्मा-परमात्मा जैसी व्यक्ति की अवहेलना करने वाली ब्राह्मणवादी संकल्पनाओं का मजबूती से खंडन किया और व्यक्ति के स्वत्व को चिंतन के केंद्र में रखा। उन्होंने आत्म नियंत्रण, आत्मानुशासन और तर्कशीलता पर जोर दिया। इस तरह ब्राह्मण जहां व्यक्ति को परतंत्र और परमुखापेक्षी बनाता था वहीं बौद्ध दर्शन ने स्वतंत्र और स्वावलंबी बनाया। बुद्ध ने जन्म और जाति के समीकरण पर सैद्धांतिक प्रहार किए। मठ के रूप में शुरू हुए संघ का बुद्ध के जीवनकाल में ही शैक्षिक, आर्थिक और चिकित्सीय संस्थान के रूप में विस्तार हुआ और वह ब्राह्मणवादी राज्य, संस्थाओं के समानांतर खड़ा हो गया। दोनों तंत्रों में बुनियादी भेद मानवता का था।
ब्राह्मणवादी राज्य-संस्थाएं जहां सामंतवाद, वर्णाश्रम धर्म, ब्राह्मण-अहंकार की रक्षा हिंसक तरीके से करती थीं, वहीं बौद्ध दर्शन ने हिंसा का प्रतिकार करके अपने समाज में समरसता, समानता कायम की। राजा को उसके कर्तव्यों के प्रति जवाबदेह बनाया क्योंकि बौद्ध दर्शन में व्यक्ति की कसौटी कर्तव्य थे, न कि जन्म या कुल। संघ ने राज-कार्य में महिलाओं की भागीदारी को सुनिष्चित किया। बौद्ध परिवार की महिलाएं शैक्षिक, आर्थिक संस्थाओं में रचनात्मक सहयोग देती थीं, जिसका जिक्र अनेक बौद्ध ग्रंथों में है। जबकि ब्राह्मणवादी समाज में महिलाएं संपत्ति के अधिकार और निर्णय की स्वतंत्रता दोनों से ही वंचित होती थीं। बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की भाषा (संस्कृत) को छोड़ जन भाषा पाली का व्यवहार किया। यह भी ब्राह्मणवाद को एक कड़ी चुनौती थी। पाली ने अपने भीतर समय के साथ होने वाले बदलावों को स्वीकार किया और प्राकृत तक आई जबकि संस्कृत में किसी प्रकार का बदलाव संभव नहीं था क्योंकि वह पवित्र वेदों की भाषा थी। अपनी संकीर्ण मान्यताओं के कारण ही ब्राह्मणवाद की प्राचीन भारत में कोई छाप नहीं मिलती जबकि बौद्ध दर्शन के ‘विहार’, ‘स्तूप’, ‘चैत्य’, ‘तक्षशिला’ व ‘नालंदा’ विश्वविद्यालय, अजंता, एलोरा के गुफा मंदिर, बौद्ध प्रतिमाएं और मठ प्राचीन भारत की विशिश्ट सांस्कृतिक पहचान कराते हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म में गुप्त काल के पहले कोई मंदिर नहीं पाया जाता है और बाद में बौद्धों के प्रभाव में जो हिंदू मंदिर बने वे आकार में छोटे हैं। बौद्ध धर्म का सबसे मजबूत पक्ष उसका आर्थिक विन्यास था। व्यापारी और कृषक बौद्ध समाज में अर्थव्यवस्था का मजबूत सामाजिक आधार बनकर उभरे। बौद्ध राज्य में वे मुक्त अर्थव्यवस्था के तहत वे स्वाधीन आर्थिक इकाई बने जबकि ब्राह्मणवादी अर्थ व्यवस्था में ब्राह्मणों ने इन पर अपने हित साधने के लिए कठोर नियम-कानून लाद रखे थे। बौद्ध राज्यों में सिक्कों का चलन व्यापक स्तर पर था। स्थानीय बाजारों का आपसी सामंजस्य तथा देसी बंदरगाहों से लेकर विदेशों तक समुद्री व्यापार उन्नत दशा में था। सैकड़ों वर्षों तक अर्थ-व्यापार की इस नीति से देशी ही नहीं विदेशी व्यापारियों ने भी अपेक्षा से कहीं ज्यादा लाभांश दिए। किंतु प्रथम सह्रसाब्दि के उत्तरार्द्ध से ब्राह्मणवाद के पुनः सत्ता में आने के बाद उसने विदेशी व्यापारियों को ‘म्लेच्छ’ कहा और धर्म सम्मत ढंग से समुद्री यात्राओं का भय पैदा करके उसे प्रतिबंधित कर दिया। सत्तामद और स्वार्थ में ब्राह्मणवाद ने एक ऐसी अंतर्मुखी और बंद अर्थव्यवस्था विकसित की जो धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों पर आधारित थी और जिसमें व्यापारी (वैश्य) और कृषक (शूद्र) समुदाय जजमानी प्रथा के जरिए सामंतों की जी-हुजूरी को बाध्य था। धीरे-धीरे ब्राह्मणवाद ने बौद्ध धर्म की सारी बदलावकामी ऊर्जा का अवशोशण कर डाला और बौद्ध धर्म की लोकप्रियता को हथियाने के लिए स्वयं में दिखावटी बदलाव किए। ह्वेनसांग (7वीं ई) की भारत यात्रा के समय तक बौद्ध धर्म भारत में अपनी अंतिम दशा में था। कपिलवस्तु और कुशीनगर जैसे बड़े बौद्ध केंद्र वीरान हो चले थे। ब्राह्मण ग्रंथों में बुद्ध को विश्णु का अवतार बताया जा चुका था। शंकराचार्य के बौद्धिक नेतृत्व में बौद्ध धर्म का हिंदूकरण कार्यक्रम तेजी से चला। बौद्ध ग्रथों में ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध प्रतीकों एवं अनुयायियों पर गंभीर हिंसा के उल्लेख सर्वत्र मिलते हैं।
भक्ति आंदोलन: 8वीं शती के बाद उभरे राजाओं ने ब्राह्मणवादी एजेंडे का समर्थन किया। सत्ता संघर्ष में बौद्ध धर्म हार गया क्योंकि वह हिंसक नहीं था। ब्राह्मणवाद इस घिनौनी जीत के पश्चात जाति व्यवस्था को सख्ती से लागू करने पर तुल गया। पुस्तक में लेखक ने इस बात का खंडन किया है कि इस्लाम के आगमन की बौद्ध धर्म के भारत से विलुप्त होने में निर्णायक भूमिका है। लेखक का तर्क है कि बौद्ध और इस्लाम दोनों ही मिशनरी हैं, दोनों का दृष्टिकोण सार्वभौमिक और समतावादी है, दोनों का मजबूत आर्थिक-विन्यास है। अंतर है तो सिर्फ इतने का कि बौद्ध दर्शन सैन्य प्रवृत्ति को नहीं स्वीकारता। मध्यकाल के दौरान निचली जातियों को ब्राह्मणवादी अत्याचारों से बचने के दो अवसर मिले। पहला, इस्लाम स्वीकार करना जबकि दूसरा अवसर ‘भक्ति आंदोलन’ बनकर फूटा। ‘भक्ति आंदोलन’ बौद्ध धर्म की तरह संगठित नहीं था इसलिए ब्राह्मणों ने जल्द ही इसे अपने नियंत्रण में लेकर उसकी तोड़-मरोड़कर अपने पक्ष में पुनव्र्याख्या की। लेखक भक्ति आंदोलन का बौद्ध धर्म का प्रभाव मानता है, क्योंकि भक्ति आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं-कबीर, रविदास, मीरा, तुकाराम आदि ने ब्राह्मणवादी मान्यताओं की जमकर आलोचना की थी।
ब्रिटिश हुकूमत के दौरान प्रतिरोध- गोरों का शासन मुगलों से भिन्न था। वे न तो भारत में बसे और न ही यहां की संस्कृति को अपनाया। गोरों में नस्लीय भेदभाव का अहंकार था जबकि ब्राह्मण जातीय श्रेश्ठता का दंभ भरा करते थे। इसी से उनमें नजदीकी आई। ब्राह्मणों ने इस नजदीकी का भरपूर लाभ उठाया। पाश्चात्य शिक्षा-दर्शन का लाभ लेने के साथ ही ब्राह्मणों ने राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व भी अपने हाथों में रखा। जाति व्यवस्था का जहर समाज में पहले से कहीं अधिक गहराया तो 19वीं सदी में बौद्ध दर्शन पुनः हिंदुत्व और जाति व्यवस्था से मुक्ति के मार्ग तलाशने/सुझाने लगा। उड़ीसा में महिम धर्म आंदोलन ने बौद्ध धर्म को बहुजन समाज के लिए विकल्प बनाया। आंदोलन ने पुरी के जगन्नाथ मंदिर पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी। ज्योतिबा फुले ने महिलाओं और किसानों को जागरूक करने के लिए सामाजिक जागरूकता अभियान शुरू किया। इस तरह दक्षिण से शुरू होकर ब्राह्मण-विरोधी (बौद्ध दर्शन) 20वीं शती तक पूरे वेग में आ गया। तमिनाडु के इयोथीथास ने घोशणा कर दी कि दलित हिंदू नहीं हैं और द्रविड़ तथा अन्य आदिवासी जातियां मूलरूप से बौद्ध हैं। इनका इतिहास प्राचीन भारत के मौर्यों से जुड़ा है। उन्होंने ब्राह्मणों पर आरोप लगाया कि ब्राह्मणों ने तमिल बौद्धों की पहचान मिटाकर उन्हें जबरिया जाति प्रथा में गिना है। दक्षिण के इस बौद्ध नवजागरण ने राश्ट्रीय आंदोलन की यह कहकर निंदा की कि उसका चरित्र सवर्ण हिंदू वाला है, दलितों की लड़ाई से उसका कोई सरोकार नहीं है। अंबेडकर ने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की जिसका खांटी हिंदू गांधी ने आद्योपांत विरोध किया। अंबेडकर ने भी बौद्ध धर्म अपनाकर उसे ही ब्राह्मणवाद से मुक्ति का मार्ग माना। निष्कर्षतः पुस्तक में लेखक ने आद्योपांत बौद्ध- ब्राह्मण टकरावों को रेखांकित करके यह साबित किया है कि भारतीय इतिहास के ढाई हजार साल वस्तुतः इसी द्वंद्व से निर्मित हैं।
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भारतीय सामाज के ढाई हजार वर्ष बौद्ध दर्शन द्वारा ब्राह्मणवाद को दी गई कड़ी टक्कर का इतिहास हैं। बुद्ध के निर्वाण के साथ ही बौद्ध संस्थाओं ने जातिवाद और ब्राह्मणों द्वारा अपनी श्रेष्ठता कायम रखने के लिए रचे गए सामाजिक-आर्थिक कुचक्रों की जड़ें खोदनी शुरू कर दीं। बुद्ध की शिक्षाओं ने ब्राह्मण ग्रंथों की प्रामाणिकता पर तीखे सवाल खड़े किए। अपने जीवनकाल में ही बुद्ध ने उन धर्मग्रंथों और पंडे-पुरोहितों की मुखालफत की थी जो पुनर्जन्म, आत्मा, मोक्ष, स्वर्ग-नरक जैसी अवधारणाओं से शोषण का कुचक्र रचते थे। बुद्ध ने ‘‘अप्प दीपो भव’’ का संदेश देकर आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार किया (अनात्मा)। बुद्ध का यह दर्शन भारतीय समाज में घोषित-अघोषित तौर पर 21वीं सदी तक मौजूद है और ब्राह्मणवाद की बुनियादी मान्यताओं, स्थापनाओं को तर्क की कसौटी पर लगातार खारिज कर रहा है। पुस्तक ‘‘ बुद्धिज्म इन इंडिया: चैलेंजिंग ब्राह्मनिज्म एंड कास्ट’’ में लेखक गेल आॅमवेड ने इस द्वंद्व को बौद्ध-ब्राह्मण द्वंद्व के रूप में अकाट्य तर्कों सहित रेखांकित किया है। लेखक का तर्क है कि ब्राह्मणों ने प्रत्येक उस आंदोलन की ऊर्जा को अवशोषित करके अपने प्रभाव में ले लिया जो उसके अस्तित्व पर सवाल खड़े करता था। बौद्ध धर्म के भारत से विलोप, भक्तिकाल की ब्राह्मणों के शड्यंत्रों की पड़ताल लेखक ने इस पुस्तक के अलग-अलग अध्यायों में की है।
बौद्ध आंदोलन ने ब्राह्मणवाद को किस तरह की चुनौतियां दीं-इसके जवाब में लेखक कहता है कि बुद्ध एक कुशल संगठक थे। उनका भिक्षुसंघ पूर्व के गणसंघ के माॅडल पर आधारित था। हालांकि गणतंत्रीय और लोकतांत्रिक मूल्यों वाले गणसंघ का विनाश करने में ब्राह्मण-समर्थित राजतंत्र सफल रहा था। लेकिन राजतंत्र भिक्षुसंघ को एकबारगी नष्ट नहीं कर सका। इसकी मुख्य वजह थी कि संघ के दरवाजे हर जाति और महिलाओं (भिक्षुणियों) के लिए भी खुले थे। लोकतांत्रिक और समाजवादी सिद्धांतों में आस्था रखने वाले संघ ने भिक्षु-भिक्षुणियों को रोटी-कपड़े, मकान, चिकित्सा आदि बुनियादी सुविधाएं मुहैया कीं। उल्लेखनीय है कि बुद्ध के समय तक ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व साहित्य, भाशा (संस्कृत), धर्म (कर्मकांड) और जातीय श्रेष्ठता के माध्यम से कायम कर लिया था। बुद्ध ने वैराग्य और ब्राह्मणवाद के बीच का मार्ग तलाशा। उन्होंने जन्म-मृत्यु, कर्म-मोक्ष, स्वर्ग-नरक, आत्मा-परमात्मा जैसी व्यक्ति की अवहेलना करने वाली ब्राह्मणवादी संकल्पनाओं का मजबूती से खंडन किया और व्यक्ति के स्वत्व को चिंतन के केंद्र में रखा। उन्होंने आत्म नियंत्रण, आत्मानुशासन और तर्कशीलता पर जोर दिया। इस तरह ब्राह्मण जहां व्यक्ति को परतंत्र और परमुखापेक्षी बनाता था वहीं बौद्ध दर्शन ने स्वतंत्र और स्वावलंबी बनाया। बुद्ध ने जन्म और जाति के समीकरण पर सैद्धांतिक प्रहार किए। मठ के रूप में शुरू हुए संघ का बुद्ध के जीवनकाल में ही शैक्षिक, आर्थिक और चिकित्सीय संस्थान के रूप में विस्तार हुआ और वह ब्राह्मणवादी राज्य, संस्थाओं के समानांतर खड़ा हो गया। दोनों तंत्रों में बुनियादी भेद मानवता का था।
ब्राह्मणवादी राज्य-संस्थाएं जहां सामंतवाद, वर्णाश्रम धर्म, ब्राह्मण-अहंकार की रक्षा हिंसक तरीके से करती थीं, वहीं बौद्ध दर्शन ने हिंसा का प्रतिकार करके अपने समाज में समरसता, समानता कायम की। राजा को उसके कर्तव्यों के प्रति जवाबदेह बनाया क्योंकि बौद्ध दर्शन में व्यक्ति की कसौटी कर्तव्य थे, न कि जन्म या कुल। संघ ने राज-कार्य में महिलाओं की भागीदारी को सुनिष्चित किया। बौद्ध परिवार की महिलाएं शैक्षिक, आर्थिक संस्थाओं में रचनात्मक सहयोग देती थीं, जिसका जिक्र अनेक बौद्ध ग्रंथों में है। जबकि ब्राह्मणवादी समाज में महिलाएं संपत्ति के अधिकार और निर्णय की स्वतंत्रता दोनों से ही वंचित होती थीं। बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणों की भाषा (संस्कृत) को छोड़ जन भाषा पाली का व्यवहार किया। यह भी ब्राह्मणवाद को एक कड़ी चुनौती थी। पाली ने अपने भीतर समय के साथ होने वाले बदलावों को स्वीकार किया और प्राकृत तक आई जबकि संस्कृत में किसी प्रकार का बदलाव संभव नहीं था क्योंकि वह पवित्र वेदों की भाषा थी। अपनी संकीर्ण मान्यताओं के कारण ही ब्राह्मणवाद की प्राचीन भारत में कोई छाप नहीं मिलती जबकि बौद्ध दर्शन के ‘विहार’, ‘स्तूप’, ‘चैत्य’, ‘तक्षशिला’ व ‘नालंदा’ विश्वविद्यालय, अजंता, एलोरा के गुफा मंदिर, बौद्ध प्रतिमाएं और मठ प्राचीन भारत की विशिश्ट सांस्कृतिक पहचान कराते हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म में गुप्त काल के पहले कोई मंदिर नहीं पाया जाता है और बाद में बौद्धों के प्रभाव में जो हिंदू मंदिर बने वे आकार में छोटे हैं। बौद्ध धर्म का सबसे मजबूत पक्ष उसका आर्थिक विन्यास था। व्यापारी और कृषक बौद्ध समाज में अर्थव्यवस्था का मजबूत सामाजिक आधार बनकर उभरे। बौद्ध राज्य में वे मुक्त अर्थव्यवस्था के तहत वे स्वाधीन आर्थिक इकाई बने जबकि ब्राह्मणवादी अर्थ व्यवस्था में ब्राह्मणों ने इन पर अपने हित साधने के लिए कठोर नियम-कानून लाद रखे थे। बौद्ध राज्यों में सिक्कों का चलन व्यापक स्तर पर था। स्थानीय बाजारों का आपसी सामंजस्य तथा देसी बंदरगाहों से लेकर विदेशों तक समुद्री व्यापार उन्नत दशा में था। सैकड़ों वर्षों तक अर्थ-व्यापार की इस नीति से देशी ही नहीं विदेशी व्यापारियों ने भी अपेक्षा से कहीं ज्यादा लाभांश दिए। किंतु प्रथम सह्रसाब्दि के उत्तरार्द्ध से ब्राह्मणवाद के पुनः सत्ता में आने के बाद उसने विदेशी व्यापारियों को ‘म्लेच्छ’ कहा और धर्म सम्मत ढंग से समुद्री यात्राओं का भय पैदा करके उसे प्रतिबंधित कर दिया। सत्तामद और स्वार्थ में ब्राह्मणवाद ने एक ऐसी अंतर्मुखी और बंद अर्थव्यवस्था विकसित की जो धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों पर आधारित थी और जिसमें व्यापारी (वैश्य) और कृषक (शूद्र) समुदाय जजमानी प्रथा के जरिए सामंतों की जी-हुजूरी को बाध्य था। धीरे-धीरे ब्राह्मणवाद ने बौद्ध धर्म की सारी बदलावकामी ऊर्जा का अवशोशण कर डाला और बौद्ध धर्म की लोकप्रियता को हथियाने के लिए स्वयं में दिखावटी बदलाव किए। ह्वेनसांग (7वीं ई) की भारत यात्रा के समय तक बौद्ध धर्म भारत में अपनी अंतिम दशा में था। कपिलवस्तु और कुशीनगर जैसे बड़े बौद्ध केंद्र वीरान हो चले थे। ब्राह्मण ग्रंथों में बुद्ध को विश्णु का अवतार बताया जा चुका था। शंकराचार्य के बौद्धिक नेतृत्व में बौद्ध धर्म का हिंदूकरण कार्यक्रम तेजी से चला। बौद्ध ग्रथों में ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध प्रतीकों एवं अनुयायियों पर गंभीर हिंसा के उल्लेख सर्वत्र मिलते हैं।
भक्ति आंदोलन: 8वीं शती के बाद उभरे राजाओं ने ब्राह्मणवादी एजेंडे का समर्थन किया। सत्ता संघर्ष में बौद्ध धर्म हार गया क्योंकि वह हिंसक नहीं था। ब्राह्मणवाद इस घिनौनी जीत के पश्चात जाति व्यवस्था को सख्ती से लागू करने पर तुल गया। पुस्तक में लेखक ने इस बात का खंडन किया है कि इस्लाम के आगमन की बौद्ध धर्म के भारत से विलुप्त होने में निर्णायक भूमिका है। लेखक का तर्क है कि बौद्ध और इस्लाम दोनों ही मिशनरी हैं, दोनों का दृष्टिकोण सार्वभौमिक और समतावादी है, दोनों का मजबूत आर्थिक-विन्यास है। अंतर है तो सिर्फ इतने का कि बौद्ध दर्शन सैन्य प्रवृत्ति को नहीं स्वीकारता। मध्यकाल के दौरान निचली जातियों को ब्राह्मणवादी अत्याचारों से बचने के दो अवसर मिले। पहला, इस्लाम स्वीकार करना जबकि दूसरा अवसर ‘भक्ति आंदोलन’ बनकर फूटा। ‘भक्ति आंदोलन’ बौद्ध धर्म की तरह संगठित नहीं था इसलिए ब्राह्मणों ने जल्द ही इसे अपने नियंत्रण में लेकर उसकी तोड़-मरोड़कर अपने पक्ष में पुनव्र्याख्या की। लेखक भक्ति आंदोलन का बौद्ध धर्म का प्रभाव मानता है, क्योंकि भक्ति आंदोलन के नेतृत्वकर्ताओं-कबीर, रविदास, मीरा, तुकाराम आदि ने ब्राह्मणवादी मान्यताओं की जमकर आलोचना की थी।
ब्रिटिश हुकूमत के दौरान प्रतिरोध- गोरों का शासन मुगलों से भिन्न था। वे न तो भारत में बसे और न ही यहां की संस्कृति को अपनाया। गोरों में नस्लीय भेदभाव का अहंकार था जबकि ब्राह्मण जातीय श्रेश्ठता का दंभ भरा करते थे। इसी से उनमें नजदीकी आई। ब्राह्मणों ने इस नजदीकी का भरपूर लाभ उठाया। पाश्चात्य शिक्षा-दर्शन का लाभ लेने के साथ ही ब्राह्मणों ने राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व भी अपने हाथों में रखा। जाति व्यवस्था का जहर समाज में पहले से कहीं अधिक गहराया तो 19वीं सदी में बौद्ध दर्शन पुनः हिंदुत्व और जाति व्यवस्था से मुक्ति के मार्ग तलाशने/सुझाने लगा। उड़ीसा में महिम धर्म आंदोलन ने बौद्ध धर्म को बहुजन समाज के लिए विकल्प बनाया। आंदोलन ने पुरी के जगन्नाथ मंदिर पर ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी। ज्योतिबा फुले ने महिलाओं और किसानों को जागरूक करने के लिए सामाजिक जागरूकता अभियान शुरू किया। इस तरह दक्षिण से शुरू होकर ब्राह्मण-विरोधी (बौद्ध दर्शन) 20वीं शती तक पूरे वेग में आ गया। तमिनाडु के इयोथीथास ने घोशणा कर दी कि दलित हिंदू नहीं हैं और द्रविड़ तथा अन्य आदिवासी जातियां मूलरूप से बौद्ध हैं। इनका इतिहास प्राचीन भारत के मौर्यों से जुड़ा है। उन्होंने ब्राह्मणों पर आरोप लगाया कि ब्राह्मणों ने तमिल बौद्धों की पहचान मिटाकर उन्हें जबरिया जाति प्रथा में गिना है। दक्षिण के इस बौद्ध नवजागरण ने राश्ट्रीय आंदोलन की यह कहकर निंदा की कि उसका चरित्र सवर्ण हिंदू वाला है, दलितों की लड़ाई से उसका कोई सरोकार नहीं है। अंबेडकर ने अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग की जिसका खांटी हिंदू गांधी ने आद्योपांत विरोध किया। अंबेडकर ने भी बौद्ध धर्म अपनाकर उसे ही ब्राह्मणवाद से मुक्ति का मार्ग माना। निष्कर्षतः पुस्तक में लेखक ने आद्योपांत बौद्ध- ब्राह्मण टकरावों को रेखांकित करके यह साबित किया है कि भारतीय इतिहास के ढाई हजार साल वस्तुतः इसी द्वंद्व से निर्मित हैं।
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