SUKH PAL DHINGAN

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Wednesday, July 13, 2011

जातिवाद भारतीय समाज की एक निर्मम सत्यता है इसके पक्ष और विपक्ष में अक्सर बहस चलती ही रहती है इस सम्बन्ध में में अपना दृष्टिकोंण निम्नानुसार है मेरा अपना विचार है की -भारत की जाती व्यवस्था के समूल विनाश , और भारत की आर्थिक प्रगति में गहरा सम्बन्ध है में डा० अम्बेडकर से बहुत प्रभावित हूँ , डा० अम्बेडकर होने की सबसे बड़ी विडंबना ये है की वो सिर्फ दलित उत्थान के रूप में जाने जाते हैं जबकि अम्बेडकर अपने समय के एक बेहतरीन विधिशास्त्री, अर्थशास्त्री और स्त्री मुक्ति के प्रबल समर्थक रहे हैं बहुत कम लोग जानते होंगे अम्बेडकर पहले भारतीय थे जिन्होंने किसी विदेशी विश्विधालय से पी एच डी की थी डा० अम्बेडकर१९१३ में अमेरिकी विश्विधालय कोलंबिया युनिवर्सिटी में थे .. डा० अम्बेडकर ने आज से ९० वर्ष पूर्व ही ये बता दिया था की भारत की आर्तिक प्रगति के पर्याप्त आधार हैं और उसके लिए भारत को पूर्णत ओध्योगिक और शेरिकृत करने हेतु ठोस नीतियां बनानी होंगी उनके अनुसार यदि ये सही प्रकार से किया गया तो देश का आर्थिक विकास होगा ,, यही व्यवस्था ७० वर्ष उपरान्त १९९१ में मनमोहन सिंह के वितमंत्री रहते हुए अपनाई गयी ,,, जिसके लिए कोई ठोस निति नहीं बनायीं गयी .. खेर विषय पर आते हैं डा० अम्बेडकर जानते थे की भारत की आर्थिक प्रगति में जाती व्यवस्था सबसे बड़ी बाधक है आर्थिक प्रगति के बिना जातिव्यवस्था का उन्मूलन संभव नहीं था .. आप सोचिये अगर आज से १०० साल पहले उदारीकरण हुआ होता और कोई ब्राह्मण अपना पेशा छोड़कर चाय पकोड़ी बेचता तो अपने समाज में अलग थलग पड़ जाता और कोई दलित कितनी भी साफ़ चाय पकोड़ी बेचता कोई ब्राह्मण उससे नहीं खरीदता उस समय के ऐसे सेकडो उदाहरण हैं जहाँ खुद के जीवनस्तर सुधरने के प्रयास जातिगत आधार पर निंदनीय कहे जाते थे .. महात्मा गाँधी तक सरीखे व्यक्ति अपने पेत्रेक पेशे को करने की वकालत करते नजर आते हैं भारत में जाती व्यवस्था का आधार मनुस्मृति रही है सम्पूर्ण मनुस्मृति का निचोड़ ये है कीकोई जाती अपना पेशा नहीं बदल सकती कोई भी व्यक्ति अपनी जाती के बहार शादी नहीं कर सकता गेर अछूत को कभी भी अछूत के नेतृत्व में कार्य नहीं करना चाहिए अब हमको सिर्फ इन तीन मानकों को तोड़ना है जो जातिवाद की जड़ हैं अगर हम अमेरिकी परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो आयेंगे की अमेरिका में सन १८६३ में राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने दास प्रथा को सार्वभौमिक रूप से समाप्त कर दिया था लेकिन सामाजिक रूप से दास दास्तुल्य जीवन ही जीते थे जेसा की आज भारत में एक बड़े स्तर पर देखा जा सकता है यहाँ भी छुआछूत संवेधानिक और विधिक रूप से समाप्त हो गयी है पर सामाजिक रूप से विध्यमान है .. अमेरिका में २० वी शताब्दी में उध्योगीकरण ने तेजी पकड़ी १९१० से १९३० तक कई लाख अश्वेत कृषि और ग्रामीण क्षेत्रो से निकलकर उद्योगीकरण में परोक्ष रूप से आये यही घटना वास्तव में दास प्रथा के उन्मूलन का वास्तविक आधार बनी सन १६१९ से दास प्रथा की बेडियाँ तोड़ने को शुरू हुए आंदोलन ने अमेरिका में अश्वेत राष्ट्रपति ला दिया कम से कम ये कहा जा सकता है अशेतो को मानसिक स्वकृति तो मिल ही गयी है इस सबके कारणों पर ध्यान देना आवश्यक है की ये सब केसे हुआ ? और भारत के संदर्भ में इसका क्या महत्व हो सकता है ........ओउध्योगीकरण के फलस्वरूप दसो ने अपना परम्परागत पेशा त्यागा जिससे उनको दास के रूप से मुक्ति मिली, जो मनुस्म्र्ती का पहला ध्येय है ये भारत के संदर्भ में भी कारगर साबित हो सकता है वर्तमान समय में यदी देखा जाये तो अमेरिकी श्वेत और अश्वेत समुदाय में बड़े स्तर पर आपस में परिवार बने हैं जिस कारन से अश्वेत और श्वेत के बीच की खायी में अंतर आया है आज यदि दो लोग जुड़ते हैं और दोनों परिवारों में १० सदस्य हो तो इस कर्म में पांच गुना अंतर कम हो जाता है , आज अमेरिका में लाखो की संख्या में एक दूसरे के रिश्तेदार है . भारत के संदर्भ में ये कारगर है जो म्नुस्म्र्ती का दूसरा ध्येय है अगर भारत में जातिगत समाज से मुक्ति पानी है तो अछूत कहे जाने वाले समाज को पूंजीपति बन्ने की दिशा में प्रयास करने होंगे जब उनके नेतृत्व में गेर्दालित काम करेंगे तो मनुस्म्र्ती का तीसरा ध्येय भी विफल हो जायेगा लेकिन हमें ये प्रयास पूरी इमानदारी से करने होंगे यहाँ ये आवश्यक है की दलितो को अपने सम्मान और अधिकार की लड़ाई लड़नी होगी न की बदले की कार्यवाही .... अगर ऐसा होगा तो भी जातिवाद समाप्त नहीं होगा बल्कि बना रहेगा और ब्राह्मणवाद का अंत नहीं होगा ,, बस ये रूप बदलकर दलितवाद के रूप आ जायेगा
By: Deepa Sharma

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